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शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

सच्चे का कोई ग्राहक नाही, झूठा जगत में ...

 सच्चे का कोई ग्राहक नाही, झूठा जगत में ....                   

   पगड़ी का मोल


         एक बार कबीर जी ने बड़ी कुशलता से पगड़ी बनाई। झीना- झीना कपडा बुना और उसे गोलाई में लपेट कर पगड़ी तैयार की। पगड़ी को हर कोई बड़ी शान से अपने सिर सजाता हैं। यह नई नवेली पगड़ी लेकर  कबीर जी दुनिया की हाट में जा बैठे। ऊँची- ऊँची पुकार उठाई- 'शानदार पगड़ी! जानदार पगड़ी! दो टके की भाई! दो टके की भाई!'


         एक खरीददार निकट आया। उसने घुमा- घुमाकर पगड़ी का निरीक्षण किया। फिर कबीर जी से प्रश्न किया- 'क्यों महाशय एक टके में दोगे क्या?' कबीर जी ने अस्वीकार कर दिया- 'न भाई! दो टके की है। दो टके में ही सौदा होना चाहिए।' खरीददार भी नट गया। पगड़ी छोड़कर आगे बढ़ गया। यही प्रतिक्रिया हर खरीददार की रही। 


        सुबह से शाम हो गई। कबीर जी अपनी पगड़ी बगल में दबाकर खाली जेब वापिस लौट आए। थके- माँदे कदमों से घर में प्रवेश करने ही वाले थे कि तभी... एक पड़ोसी से भेंट हो गई। उसकी दृष्टि पगड़ी पर पड गई। 'क्या हुआ संत जी, इसकी बिक्री नहीं हुई ?  पड़ोसी ने जिज्ञासा की। कबीर जी ने दिन भर का क्रम कह सुनाया। पड़ोसी ने कबीर जी से पगड़ी ले ली- 'आप इसे बेचने की सेवा मुझे दे दीजिए। मैं कल प्रातः ही बाजार चला जाऊँगा।


       अगली सुबह कबीर जी के पड़ोसी ने ऊँची- ऊँची बोली लगाई- 'शानदार पगड़ी! जानदार पगड़ी! आठ टके की भाई! आठ टके की भाई! पहला खरीददार निकट आया, बोला बड़ी महंगी पगड़ी हैं दिखाना जरा!

पडोसी- पगड़ी भी तो शानदार है। ऐसी और कही नहीं मिलेगी।


    खरीददार- ठीक दाम लगा  लो, भईया।


     पड़ोसी-  चलो, आपके लिए- छह टका लगा देते हैं! 

खरीददार - ये लो पाँच टका। पगड़ी दे दो। एक घंटे के भीतर- भीतर पड़ोसी वापस लौट आया। कबीर जी के चरणों में पाँच टके अर्पित किए। पैसे देखकर कबीर जी के मुख से अनायास ही निकल पड़ा


         सत्य गया पाताल में झूठ रहा जग छाए।

          दो टके की पगड़ी पाँच टके में  जाए।।


    यही इस जगत का व्यावहारिक सत्य है। सत्य के पारखी इस जगत में बहुत कम होते हैं। संसार में अक्सर सत्य का सही मूल्य नहीं मिलता, लेकिन असत्य बहुत ज्यादा कीमत पर बिकता हैं। इसलिए कबीर साहिब ने कहा- 


     सच्चे का कोई ग्राहक नाही, झूठा जगत में